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रविवार, 27 नवंबर 2011

बीज और जड़


बीज 
जब बोया 
था एक भाव ...
अंकुरित ,
पल्लवित ,और फिर 
हो गया 
फलीभूत 
एक सुंदर 
रचना में ....
निहारा 
संवारा 
फ़ैल गई वो 
छाया बनकर ....
पक्षी 
चहचहा उठे 
बूँदें 
थिरकने लगी 
पत्तियां 
जगमगाने लगी 
और, हवाएं 
महक उठी.. 
उस मीठी 
खुशबू से ....

इधर 
कई दिन से 
कुछ सेहतमंद लोग 
हो गए है 
जागरूक 
जब देखो ,तब 
उठा लेते है 
पत्थर 
ढांपने लगे है 
पैरों तले की 
जमीन .........

कौन समझाये 
????????

पक्के फर्श पर 
नहीं उगा करते 
पेड़......
और फैली जडें 
उखाड़ फैंकती है 
पत्थरों  को भी ..................

("काव्य-लहरी " में प्रकाशित )












मंगलवार, 15 नवंबर 2011

कुछ नज्में इमरोज़ के नाम ...........

बिक गया अमृता का मकान .......
 ये महज कोई कल्पना ,या मन बहलावा नहीं जिसे शब्दों में सराहा या नाकारा जाये ,ये एक ऐसी हकीकत है जिसका दर्द वही समझ सकता है जो अमृता को चाहता है,सिर्फ अमृता को ....उसके रुतबे ,उसके नाम ,उसकी साहित्यक पहचान से परे .....सिर्फ उसे ,उसकी रूह को ,उसके मन की उन दशाओ को,उस सत्यता को जिसे जीवन भर उसने जिया ... जिसने महसूस किया होगा उसे शब्दों का होश कहाँ .......यूँ लगा ....


........(1)............
मेरी आँख में पलता सपना टूट गया 
जैसे कोई अपना छूट गया,
 अब ढूँढने को दुनिया हो गई ,
मंदिर  में स्थापित मूर्त खो गई...
(30.8. 2011 )
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साहित्य जगत में खलबली है ,सवालों की बारिशें  हैं , हर  नजर इमरोज़ की मोहब्बत पर सवाल करने को आतुर है..???????????.. पर इमरोज़ किससे साँझा करे..? और क्यूँ करे ?जब ये मकान घर बना ,सवाल तब भी उठे थे... दर्द तब भी मिला था,पर हौंसला था....आज मकान (घर नहीं)बिका तो फिर वही सवाल ...... 
आखिर क्यूँ......?????  इस क्यूँ का जवाब ,कभी किसी सवाल के पास नही होता ....हाँ इमरोज़ जी की मनोस्थिति के बारे में इतना ही कह सकती हूँ.... 

              (इमरोज़ .....)
(2)
एक झरना फूटा
चीर गया धरती का सीना 
ज़ख्म था गहरा 
कैसे दिखता 
कुछ पल में ही 
झील हुआ ...
 सुबह गुजारो 
शाम बिताओ, 
मिटटी डालो ,
कंकर फेंको ,
शब्दों का जितना,
जाल फैलाओ...
वक़्त गुजारेंगे, सब 
दिल बहलाएँगे, 
फटे हुए उस सीने को
मगर, कहाँ....
सिल पाएंगे ......
(10 नवम्बर 2011) 

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(3)
 "नही बिका करते कभी घर
    बिका करते है मकान 
    तू है तो मै हूँ 
          मै हूँ तो ये जहान......".
          
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( 4 )
"घर रूह से होता है 
जिस्म होता है एक मकान 
मिटना लाजिम है जिस्म का 
फिर रूह क्यूँ कर हो परेशान" 

(11.11.2011 )


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बहुत बवाल उठ रहा है ,कई सवाल हो रहे है ,सब जागरूक हो रहे है, लेकिन ईंट गिरने के बाद ,धरोहर तो वो उस वक्त से था ,जब से अमृता इमरोज़ ने इसे बनाया ,उसके जीते जी किसी को ख्याल न आया ,उसके जाने के बाद भी ,5 साल 5 महीने  बीत गए कभी किसी ने ये कदम नही उठाया ...........आज जो ये हवा चली है ,ये पहले भी उस घर का पता जानती थी ,पहचानती थी उन साँसों की खुशबु को ,जर्रे  जर्रे  में समाई अमृता के वजूद के लफ़्ज़ों को ....फिर ये चेतना आज क्यूँ ..????
क्या इसलिए के आज वो मकान जमीन हो गया ...?  
ईंटे गिर गई तो साहित्य जगत पशेमां हो गया .....?
एक  बहुमूल्य निधि के खोने का एहसास हो गया ..........?
शायद
यही दुनियावी हकीकत है ......


जब जिस्म मिटटी हो जाते हैं तो उनके "नाम" का गुणगान होता है 
जब भूत पिशाच हो जाती है तो "रूह" का गुमान होता है, 
जब संपतियां लुट ,बिक  जाती हैं तो धरोहरों का ख्याल आता है,
जीता जागता इंसान सदा से  जग में अनजान होता है ...
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जब ईमान की ईंट से एक छत का निर्माण हुआ ,मकसद तब भी एक  "घर" था ,आज ईंटे बिकी ,तब भी मकसद, अमृता की जीती जागती रचनायें है ...और इमरोज़ का "सुच्चा मान"अमृता ही नही उससे जुडी हर शै है...जिसे वो अपनी आत्मा से चाहते है...बिल्कुल 
"राधा " की तरह 
बहुत कुछ है लिखने को ,भावों की एक नदी बह रही है ,प्रश्न है पर स्वयं से.....इस सांसारिक व्यवहार से ........
आज इतना ही ,कुछ पल पहले बात हुई इमरोज़ जी से उसका जिक्र फिर करूंगी .....

गुरुवार, 3 नवंबर 2011

राधा .....




राधा तो धारा है 

जो आज भी बहती है 

तेरे मेरे चितवन के ,

गहरे सागर में रहती है ......