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मंगलवार, 17 दिसंबर 2013

ईश्वर और आदमी ....


ईश्वर ने 
सहेज रखे थे 
कुछ फूल ....
 आदमी ने 
जल्दी में कर दी 
भूल ...

 चुनने की कोशिश में 
चुभते गए शूल .....
 अब फटी झोली है ..
और ईश्वर के हाथ में 
फूल .......
 झोली फैलाने पर ..
मिल ना जाये धूल ..
 बाँध कर झोली  
बस तकता है ....
जैसे बहती लहरों को 
तकता है कूल ......... 

सोमवार, 2 दिसंबर 2013

वर्जित फल'



कभी कभी मन 
होकर के बागी  
चाहता है
चुराना  कुछ पल 
 चखने को  
कोई 'वर्जित फल' 









काश ! ये 

होता   इतना  ही सरल 
जैसे , होता था 
बचपन की  दोपहरी में 
चुराना  
 जामुन ,इमली  के फल …… !!!!

सोमवार, 25 नवंबर 2013

स्पर्श .........

आँसू सूखने का 
भ्रम सा था
बहुत महीन हो गये 
थे , और ठंडे ....
जैसे बर्फ पर रखा 
हाथ  , कुछ पल बाद 
हो जाता है 
हर अहसास से मुक्त ……

लेकिन ,अब ये ऊष्मा कैसी…! ! 

मोटी बड़ी बूंदों से 
ढुलक आते है 
बात बात पर ……
स्नेहिल स्पर्श से 
बारिश की बूँद से 
टप.…टप.…टप....  !! 
भाव की  ऊष्मा 
से ,महक उठा 
मिटटी का मन  
शायद से ....... 

रविवार, 24 नवंबर 2013

यात्रा ......

कितना अच्छा हो
बच्चों को पढाया जाये 
अ-से अनुज (अनादि )
आ-से आनंद … 

अक्षर से शब्द की यात्रा 
हो जाएगी  सरल … 
और  
वाक्य विन्यास में 
लिख पाएगा 
फिर वही  ,
लिखना चाहेगा  
जो वो कहीं .............. !!

{प्रेरणा स्रोत -अ-से-अनुज }

-अंजू अनन्या-

सोमवार, 18 नवंबर 2013

प्रेम ..........

तुम 
कब थे अलग मुझसे 
सोये थे मुझमें 
मुझी से ......

जागे हो जो अब ,
नज़र आते हो 
हर कहीं पे ......

पानी आँख में 
उतर आए ,संजीवनी 
 हथेलियों में जैसे......

कोई इतना भी प्रेम 
कर सके है किसी से 
कि छुप के बैठा रहे 
खुद , खुदी से ...........


शनिवार, 9 नवंबर 2013

जब.… तब..... अब........! ?


जब चाहिए था 
स्नेह …

तब बोयी 
नफरत ,घृणा 
यूँ  आदी हो गई (जमीं )

अब बंजर जमीं से 
हरियाली पोशाक 
और 
गुलाबी खुशबू की 
उम्मीद क्यूँ  .......... ?!!


सडक और रास्ता ...(२)

(२)

सड़क  
चलना चाहती थी  
साथ साथ 
पर खोदते रहे बारम्बार …   

बन  गया 
एक गड्ढा गहरा 
बरसात  मौसम में  
भर जाता है पानी 
भिनभिनाते हैं मच्छर……!

तपती लू में 
ज़मी सोख लेती है पानी 
भुरभुराने लगती है 
मिटटी ……

भरने की कोशिश में 
सड़क का कटना  
रहता है जारी … 
 

सड़क और रास्ता .......(१)


(१) 

सड़क  
चलना चाहती थी  
साथ साथ 
पर खोदते रहे बारम्बार …   

सड़क कटती रही 
रास्ते से 
बन  जो गया 
एक गड्ढा …. 

अब 
सड़क निश्चिन्त है 
और, सम्भलना 
रास्ते को है ……… 



बुधवार, 6 नवंबर 2013

'जल' से ........

'पानी' का मैलापन 
बोला 'जल' से 
मत ठहरो ,बहते जाओ 
छोड़ घाट 
कल-कल से ………… 

बहना … तुम्हारी प्रवृति है  … 
रुकना पानी की  'नियति..........

नियति चक्र को पार कर  
मिट जायेगा मैलापन 
तब भाप सा उड़ता 
ठहर जाउंगा किसी 
श्वेत कण सा 
हिम शिखर पर  
....... 

सूरज का ओज 
देगा पिघला 
बह आऊंगा तुममे 
जल होकर ……

तब  मिल जाना तुम 
मुझे 
उसी तलहटी पर 
न हो पाऊँ अलग कभी 
घुल जाऊं ,तुममे 
तुम होकर  ………… !!!


सोमवार, 28 अक्तूबर 2013

.चक्रव्यूह...{पोस्टेड इन हरिप्रिया ...28oct.2013}





तुम्हारी 
नन्ही माखन सनी
उँगलियों को थाम 
आना चाहती हूँ बाहर 
इस चक्रव्यूह से ------

'प्रवेश'  निश्चित  था ---
बाहर आना अनिश्चित --

कर  दो  सुनिश्चित 
हटा दो ये  आवरण 

' मैं ' मेरे से बाहर 
देखना है मुझे स्वयं  को 
उस पारदर्शिता में ..........






गुरुवार, 24 अक्तूबर 2013

वर्जित प्राण ............

लिबास तन का बदलना 
 होता है कितना आसां 
काश ! होता इतना ही आसां 
रूह का लिबास उतार फेंकना 

कर देना दान ,किसी 
ग्रहण  की छाया में …….
या फिर उधेड़ कर सीवन
टुकड़ा टुकड़ा लिख देना 
दरवाज़े ,खिड़कियों के नाम 
पोंछने को धूल 
या बांधने को घाव…। 

या फिर काट-छांट कर 
किया जा सकता पायदान…। 

घूरती नजरें 
बींधती है मन-आत्म 
सिकुड़ने पर भी तो 
घुटती है श्वास 
क्या ,सांस लेना 
जुर्म है…. ईश्वर ?!

या वर्जित हैं  
उन्मुक्त प्राण .…!!!

गर हाँ.…तो 
 अपने ही हाथों 
नोच कर
उतार फेंकने का 
ह्क़ नही तो , हौंसला  
ही दे दिया होता ……. 

छीजता लिबास 
आत्म का परिहास 
नही देखा जाता 
अब मुझसे......

क्या यही नियति है ……  

हाँ ,तो 
कर दे  राख  
रह जाने दे 
मात्र आभास   ..........

गुरुवार, 3 अक्तूबर 2013

बुदबुदाहट ...............





बहुत उदास है ..............

कमरा 

कमरे की दीवारें 

छत ताक रही 

अपलक ....

ओर फर्श

बैठा  है  

कान सटाए .....

कहीं कोई जो 

आहट आये ...!!!!


दो पदचिन्ह 

कसमसाते से

मुंह फेर कर 

बैठ गई वो कुर्सी 

बुदबुदाने लगती है कभी कभी ....

हसरतें ~~~~~~






बहुत पेचीदा है बनावट इनकी ......

हसरतें हैं  या कि ....

जन्मों का बिखराव ....!!!!!!!

गुरुवार, 12 सितंबर 2013

नन्ही बूँदें ................

जड़ों  के बीच से 
काट दिया पेड़ 
मुरझा गया था 

जड़े लगी थी सूखने ----

 हवा के साथ 
कोई बादल आया 
और 
बरस गया ----

जाने क्या था 
नन्ही बूंदों में ---!

वो ' जल ' ही रहा होगा ---- 
समझ गया जड़ों की प्यास 

दिखाई देने लगी है 
हरीतिमा 
और कोंपले 
'हैं ' मानो  
प्रतीक्षारत -------




शनिवार, 7 सितंबर 2013

परिवर्तन .....

'अर्थ ' 
कहीं खो गए 
या कहूँ कि
बाज़ार की चकाचौंध में 
दिखते हैं 
जुगनू जैसे .....

बचे हैं तो ' शब्द '
वो भी बिकते हैं 
आज कल 
बड़े बड़े बैनरों की ओट में 

पहने जाते हैं 
कीमती लिबासों के रूप में 
जो बदलते रहते हैं 
मौसम ,जगह और 
परिवेश के अनुसार .................

((" काव्य-चेतना  " में प्रकाशित )

सोमवार, 26 अगस्त 2013

मैं लिखती कहाँ हूँ .........

मैं ..लिखती
 कहाँ हूं ...?

जब भी चाहा 
कुछ लिखना
कहाँ , लिख पाई 

लिखा जाता है 
जो भी ..
होता है 
उसकी रजा से ..

वो बोलता 
मैं सुनती हूँ 
और 
कलम 
खुद ब खुद 
बिखर जाती है 
खाली पन्नों पर ....

यूँ मिट जाता है 
फासला 
कलम -कागज 
मेरे -उसके 
बीच का .....
(" काव्य-लहरी " में प्रकाशित )


नही पुकारना ......



आधी रात ..कोई तारा टूटा
नही देखा ...नामुराद जो ठहरा ........

कोई उठा किसी नाम के साथ
अंधी आँखें ..खंगालने लगी अंधेरा ......

"कितनी भी याद आये नही पुकारना "
.....लबों पर चिपका कर चला गया कोई

रिमझिम रिमझिम तेज बौछारें
भेदती जैसे रात कि नीरवता ...

रोता रहा आसमान ..लिए पलकों पे हिचकियाँ
चाँद नदारद था ......................

बारिशों से उसे कब लगाव होता है
रहता है चांदनी में साथ

{...................}

शनिवार, 17 अगस्त 2013

एहसास ................

उनींदी आँखों में 

सुरमई लकीर सा 

बहकता ख्वाब ......


सर्र.र्र.. सी सरसरी 

मरीचिका सी आस  

नम झोंके का

पुरनम बहाव  .......


स्निग्ध एहसास  

महका  उज्जास ......


जी लिया ...यूँ 

हथेली से , 

हथेली का विश्वास  .........!



शनिवार, 10 अगस्त 2013

{..अपनी अपनी जगह ....}



तपते लोहे पर 

चोट करने को कह 


टूट गया लोहा ..!


कुछ चिनगारिया भभकी 

लोहार ने आँखें बचा ली 


लोहा देख रहा था 

टुकड़ा टुकड़ा वजूद ...


खुश थे 

अपनी अपनी जगह 


एक 
दो आँखों की चमक से 


दूसरा 

कुछ आकृतियों के 

साकार हो जाने पर ..!!


{...अन्या ....}

गुरुवार, 1 अगस्त 2013

ख्वाब.............................



ज़ज्बात मूक 

और शब्द ...

शब्द दफन हुए 

हलक में ......


बहुत रोका 

पर 

जुगनू से ख्वाब 

आखिर 

ढुलक गए 

पलक से ..............! ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह ...!!! 

{- अन्या - }




सोमवार, 29 जुलाई 2013

आँख का बादल...............


हाँ ..
होता है कभी
घुटन जो 
घुटती भी नही
उमस 
चिपचिपी सी
ना उखडती
सूखती भी नही
..............

दम घोंटू
ना दम निकले
ना आये श्वास
....................

आँख का बादल
कोई आस
घुल जाये तो
उदास
बरस जाये तो
प्यास
बिखर जाये तो
बदहवास .....अह!


गुरुवार, 18 जुलाई 2013

अपेक्षा के दायरे ....


नही
जुड़ने दूंगी
उस हद तक
इस आईने को .....

हो सके
प्रतिबिम्बित
छाया मेरी
अपेक्षा की ...

इसलिए
रखती हूं
हथेलियों के बीच
एक पत्थर
एक कील नुकीली ...

भींच लेती हूं
मुट्ठी
जोर से
जब भी
सिर
उठाती हैं
वो ........

कटी लकीरें
छिले हाथ
कब देते हैं
गवाही
ऐसे जख्मों की ........

[{( अंजू अनन्या )}]

रविवार, 14 जुलाई 2013

तिनका तिनका ...आग.....


वो तिनके 

चुने थे जो 

रूह ने  

आँखों से .....



हरी पत्तियों के 

बीच कोई  बसेरा 

था नदी पार 

इक सवेरा  ....


अह! बिखेर दिए 

अपने ही हाथों 

उस रोज़ की 

एक आँधी में .....


अब 

चुनना होगा 

तुम्हें 

अपने हाथों से ...


मेरी अंतिम सीढ़ी 

अंतिम बिछोने की 

खातिर .......!!


{ सुना है आग की ..तिनकों से होती है अटूट दोस्ती ........

तभी तो देती  है उस वक्त भी साथ ......

जब नही रहता कोई हाथ ..... निभाने के लिए ......}

मंगलवार, 9 जुलाई 2013

धरती ...बादल .......बरसात ..........{ दो कवितायें }



कल ,
बरसात में 
धरती का इक टुकड़ा 
 गया था भीग ..... 
बहुत  खुश थी 
उसकी सौंधी खुशबू 
समेटने में ........

आज 
यकायक ,बरस पड़ा 
सूरज का आक्रोश 
उसी टुकड़े पर ...
नमी हो गयी गायब 
और वो 
गिनने लगी द्र्रारे 
पपड़ाई जमीन पर ..................

{.....अनन्या .....}

..............................................................................................

                             (२)          


देख , बादल को  
भटकते ,
फैला दी बाहें  
धरती ने ,और 
दे दी पनाह 
अपने आँचल में

......

अगली सुबह 
देखा 
मुस्कुरा रहा था 
नीला आकाश 

लेकिन 
नम था 
धरती का आँचल 
शायद 
रात भर रोने के कारण ...........!!





[( अनन्या ) ...
कविता संग्रह "काव्य लहरी " से ]

गुरुवार, 4 जुलाई 2013

आखिरी आहुति ...


हवनकुंड में 
प्रज्वलित अग्नि 
बुझने को है .....

पर आहुतियाँ बरकरार ...

इससे पहले ,हे अग्निदेव 
तुम हो जाओ शांत 

लो ,कर दिया मैंने 
आखिरी आहुति का 
होम 
पात्र के साथ ........

{...अनन्या ....}

यूँ ही ...............{तीन लघु कवितायें }


{.....सड़क ....}

आज फिर 
उसी खाई में 
गिरा था 
एक पत्थर 
किसी ठोकर से .......

सड़क 
सिहर उठी 
तेज गति लिए 
लापरवाही से 
पड़ते पाँव की 
कल्पना मात्र से ...............!!

{ वक्त और स्थितियां खुद को  दोहराती क्यूँ हैं ....} 

...................*......................*..................................*........................
                                              [२]}

सपने 
फूल से .....

बिखरे 
धूल से........

चुभेंगे 
शूल से ......... 

{ यूँ ही सी कुछ बातें ....कह जाती कुछ आते जाते ....< अनन्या >}

..............*.........................*....................................*........................
[३]

आदमी 
हो जाता है 
कितना रहस्यमयी 
जब रख देता है 
कहकहों के बीच 
ज़िन्दगी की किताब ,खुली .......

लोग देखते रह जाते हैं 
कभी कहकहों को 
तो कभी  
खुली किताब को ...............!

{........हंस कर उड़ा देना हर फ़िक्र को ......ना लाना जुबां पर दर्दे ज़िक्र को .......}

[रिश्ते तो ...रंग हैं ...../ और बदलते रहना .....आदमी की फितरत ......]





   

बुधवार, 3 जुलाई 2013

संधि बेला .............


बुझने से पहले
अकसर  
हो जाती है तेज़ ,
दीये की टिमटिमाती लौ......
शायद
कुछ ऐसी ही होती है
पुराने और नए वर्ष की
संधि् बेला ................
जहाँबीता वर्ष
करता है आकलन
तीन सौ चौसंठ दिनों का
औरजोड घटाव के बाद
कर लेना चाहता है दर्ज
अंतिम दिन........
बन जाए जो ‘अर्थ
पूरे वर्ष का 
या फिर 
करता है कोशिश
संवारने की ,
पुराने लिबास को ....
और फिर ,
सपनीले धागों 
आशाओं के रंग से
बुनता है 
एक ‘नया लिबास
जो बेहतर हो
पुराने लिबास से .....
पर ,क्या 
ऐसा होता है...?
ये सवाल
हर साल
इसी संधि् बेला पर
बन जाता है
प्रश्न चिन्ह’ 
और मैं
खोजने लगती हूँ 
उसका हल........

यही कहोगे ना ...........

"तुम तो मुझे भूल ही गई ..."
कितने दिन से बात भी नही की ...!!!
यही कहोगे ना ......जानती हूं .....

पर नही कह पाऊँगी कुछ ...
सिवा इसके 
"हाँ ,बहुत कीमती रहे होगे तुम .."
ज्यादा सम्भाल कर रख दिया तुम्हें ....
और तुम तो जानते हो ना ....
अक्सर ज्यादा सम्भाली चीज़ें /यादें 
एन मौके पर ..
ढूँढने से भी नही मिला करती .....!!!!

बेवक्त मिलना भी तो
कसता है तानों का शिकंजा .....
बस यही सोच कर ....
खींच लेती हूं हाथ ....
मूँद लेती हूं आँख ......
रख आती हूं कहीं 
गहरी सम्भाल और 
भूल जाने के बहाने के साथ ....!!
(अनन्या अंजू )

सर्वाधिकार सुरक्षित

बुधवार, 19 जून 2013

सत्य -सेतु


न्याय और सत्य पथ पर 
राम, तूने एक सेतु बनाया 
विशालता के अहं को उसपे 
नतमस्तक होना सिखाया ...

तुम्हारी सच्चाई पर उसने 
रास्ता था तुम्हें दिखाया 
चरणों को तेरे छूकर 
लहरों ने मर्यादा को निभाया .....

भक्ति और समर्पण को 
हवा ने गले से यूँ लगाया 
तेरे नाम की लय पर 
पत्थर को तैरते पाया .....

तेरे रूप की मोहकता 
जल निहार रहा था मूक 
तुम ही तुम थे सब जगह 
जरा नही थी चूक .......

पर देखो फिर से 
उठी है एक बयार 
विकास की लय पर 
एक सेतु बने आर पार .......

आगे बढने की प्रभु 
लगी ये कैसी होड़ 
जाना कहाँ ,मालूम नही 
फिर भी लगी है दौड ........


कोई जाये जाकर देखे सागर 
चीख चीख कर करे पुकार 
मत बांधों मुझे ,बहने दो 
ना खड़ी करो तुम दीवार ...

कहीं सरहदें ...कहीं दीवार 
कहीं जाति, कहीं धर्म विवाद 
तेरी नैसर्गिकता से प्रभु ..
बुद्धि  करती क्यूँ है छेड़छाड़ .....

एक दिन ऐसा आएगा ..
सुन लो प्रभु का नाद 
यही उच्छृंखलता कभी तुम्हें 
हे मानव, कर देगी बर्बाद ....



बाहर से तुम खूब फले हो 
अन्तर में बसता खालीपन ..
झाँक लो भीतर एक बार तुम ...
विकसित हो जाएगा तन मन ........
.................................................
 { अंजू अनन्या }

{ "काव्य-चेतना " से }