बीन कर
ख्यालों के कच्चे कोयले ...
जलने लगी थी कांगडी ...
धुखती बेसुध खुमारी में
स्वाहा होती सांसें
कुछ कहती सुनती
हवाओं की सरगोशी
बुनने लगी
अनगिनत पलों से ..
एक गर्माहट ...!!
ओढने लगी गर्माहट ....
अचानक तप्त गालों ने
सोख ली ढुलकती
दो बूँदें .......
अह्ह्ह्ह्ह ...!!!
इतना ताप ..!!
कैसे सहती है कांगड़ी ......?!
मन ..
कांगडी ही तो है
और बर्फ को पीना
बहुत मुश्किल ......!!!!!
(कभी कभी यूँ भी होता है ...............)