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शनिवार, 27 नवंबर 2010

मंथन






  
सागर मंथन
देव, दानव
फिर 
समुन्द्र की निध्यिों का
बँटवारा ............
सब कुछ 
 बराबर बराबर
पर 
अमृत कलश को
देखते ही
उठा विवाद
अमृतकी 
 चाहत में ---

सेतु समुन्द्रम
देव रूपी आस्था
बैठी है चुपचाप
सत्ता की लोलुपता
कर रही है
 छीना-झपटी 

अमृत कलश का
हो गया बटवारा
कलश बन गया 
राम सेतु
पर अमृत  
रामनही
ब्लकि है
सत्ता की
महत्वाकांक्षा 
विवाद 
 वहीअमृतका ----

जहाँ जहाँ अमृत गिरा
वहाँ वहाँ कुम्भ बना ----
जहाँ जहाँ 
कलश छलकेगा
वहाँ वहाँ 
कुर्सी का वर्चस्व बनेगा
ऐसा माना जा रहा है
राजनीति के अर्थों में ---


जब जब  
कुम्भ आता है
धार्मिक संवेदना
खिंचती है,
नदियों की ओर
जब जब 
चुनाव आता है


अपने वर्चस्व हेतु
सत्ता उठाती है
रामका तूणीर 
 और
साध लेती है
कोई ना कोई  
 निशाना 



 किन्तु,
तीर चलाने वाले हाथ
नहीं जानते
कि तूणीर 
चाहे राम का रहा हो
पर 
तीररामके नहीं


क्योंकि
सत्ता विमुख तुणीर भी
अब 
हो गया है खाली
और आस्था,
हो गई है 
समझदार
जान गई है भेद
लक्ष्य और निशाने ,
सत्ता सेतु और
सेतु समुन्द्रम के बीच