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सोमवार, 28 अक्तूबर 2013

.चक्रव्यूह...{पोस्टेड इन हरिप्रिया ...28oct.2013}





तुम्हारी 
नन्ही माखन सनी
उँगलियों को थाम 
आना चाहती हूँ बाहर 
इस चक्रव्यूह से ------

'प्रवेश'  निश्चित  था ---
बाहर आना अनिश्चित --

कर  दो  सुनिश्चित 
हटा दो ये  आवरण 

' मैं ' मेरे से बाहर 
देखना है मुझे स्वयं  को 
उस पारदर्शिता में ..........






गुरुवार, 24 अक्तूबर 2013

वर्जित प्राण ............

लिबास तन का बदलना 
 होता है कितना आसां 
काश ! होता इतना ही आसां 
रूह का लिबास उतार फेंकना 

कर देना दान ,किसी 
ग्रहण  की छाया में …….
या फिर उधेड़ कर सीवन
टुकड़ा टुकड़ा लिख देना 
दरवाज़े ,खिड़कियों के नाम 
पोंछने को धूल 
या बांधने को घाव…। 

या फिर काट-छांट कर 
किया जा सकता पायदान…। 

घूरती नजरें 
बींधती है मन-आत्म 
सिकुड़ने पर भी तो 
घुटती है श्वास 
क्या ,सांस लेना 
जुर्म है…. ईश्वर ?!

या वर्जित हैं  
उन्मुक्त प्राण .…!!!

गर हाँ.…तो 
 अपने ही हाथों 
नोच कर
उतार फेंकने का 
ह्क़ नही तो , हौंसला  
ही दे दिया होता ……. 

छीजता लिबास 
आत्म का परिहास 
नही देखा जाता 
अब मुझसे......

क्या यही नियति है ……  

हाँ ,तो 
कर दे  राख  
रह जाने दे 
मात्र आभास   ..........

गुरुवार, 3 अक्तूबर 2013

बुदबुदाहट ...............





बहुत उदास है ..............

कमरा 

कमरे की दीवारें 

छत ताक रही 

अपलक ....

ओर फर्श

बैठा  है  

कान सटाए .....

कहीं कोई जो 

आहट आये ...!!!!


दो पदचिन्ह 

कसमसाते से

मुंह फेर कर 

बैठ गई वो कुर्सी 

बुदबुदाने लगती है कभी कभी ....

हसरतें ~~~~~~






बहुत पेचीदा है बनावट इनकी ......

हसरतें हैं  या कि ....

जन्मों का बिखराव ....!!!!!!!