छ्पने की चाहत में
'वो' लिखता ही गया
इतना लिखा कि
' हो गया किताब '।
संस्करण निकलते हैं
जिल्द ( कवर ) बदलती है
और कीमत रहती है
बढ़ती-घटती ....... .
भटकता रहा कभी
इस हाथ ,कभी
उस हाथ.……
चक्करघिन्नी सा
रहता है घूमता
उन्ही शब्दों (किरदारों )
के साथ.…।
आह…… !!!
नही होना मुझे
कोई ऐसी किताब
छोड़ दिया लिखना
सवाल - जवाब के
किसी तयशुदा
हिसाब के साथ. .......