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मंगलवार, 31 जुलाई 2012

सिर्फ एक बार .....

तुम्हे  आदत है
चलने  की बहुत ..
वो भी
 तेज़ रफ़्तार क़दमों से....
(मुझे रुक कर मुड कर देखना )....
अचानक तुम  
चलते चलते दौड़ने लगे ....
तब से ...
मैं ......धूल से सनती...
आँखे मलती....
निशाँ पकडती ...
लकीरों को झाडती ...
हो गई हूँ एक लकीर ...
जो बनती, मिटती
न तेरे हाथ तक पहुंची ...
देखो ..! मिटने लगी है .अब
इससे पहले के हो जाये लुप्त
रौंद जाये
गाहे बगाहे पड़ते पाँव...
मिट जाये  निशाँ..
न बचे शेष ...
हो जाये अवशेष
लौट आओ ....
एक बार ...
उकेर लो ..
अपने हाथ में
सिर्फ एक बार .....

8 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत ही बेहतरीन और प्रशंसनीय प्रस्तुति....

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  2. शुक्रिया ...यशवंत जी ..., वर्षा जी ....

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  3. लकीर से मुक्त हो जाऊं इसी लिए .....शुक्रिया रश्मि दी !

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  4. सुन्दर सृजन , आभार .

    कृपया मेरे ब्लॉग पर भी पधारें , आभारी होऊंगा .

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  5. लकीरों में जीवन की भी कोई न कोई रखा होती है ... इससे मुक्ति संभव है क्या ...

    जवाब देंहटाएं
  6. वाह..
    बहुत सुन्दर अंजू जी.

    अनु

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