तुम्हे आदत है
चलने की बहुत ..
वो भी
तेज़ रफ़्तार क़दमों से....
(मुझे रुक कर मुड कर देखना )....
मैं ......धूल से सनती...
आँखे मलती....
निशाँ पकडती ...
लकीरों को झाडती ...
हो गई हूँ एक लकीर ...
जो बनती, मिटती
न तेरे हाथ तक पहुंची ...
देखो ..! मिटने लगी है .अब
इससे पहले के हो जाये लुप्त
रौंद जाये
गाहे बगाहे पड़ते पाँव...
मिट जाये निशाँ..
न बचे शेष ...
हो जाये अवशेष
लौट आओ ....
एक बार ...
उकेर लो ..
अपने हाथ में
सिर्फ एक बार .....
चलने की बहुत ..
वो भी
तेज़ रफ़्तार क़दमों से....
(मुझे रुक कर मुड कर देखना )....
अचानक तुम
चलते चलते दौड़ने लगे ....
तब से ...मैं ......धूल से सनती...
आँखे मलती....
निशाँ पकडती ...
लकीरों को झाडती ...
हो गई हूँ एक लकीर ...
जो बनती, मिटती
न तेरे हाथ तक पहुंची ...
देखो ..! मिटने लगी है .अब
इससे पहले के हो जाये लुप्त
रौंद जाये
गाहे बगाहे पड़ते पाँव...
मिट जाये निशाँ..
न बचे शेष ...
हो जाये अवशेष
लौट आओ ....
एक बार ...
उकेर लो ..
अपने हाथ में
सिर्फ एक बार .....
बहुत ही बढ़िया
जवाब देंहटाएंसादर
लकीर से मुक्त हो जाऊं
जवाब देंहटाएंबहुत ही बेहतरीन और प्रशंसनीय प्रस्तुति....
जवाब देंहटाएंशुक्रिया ...यशवंत जी ..., वर्षा जी ....
जवाब देंहटाएंलकीर से मुक्त हो जाऊं इसी लिए .....शुक्रिया रश्मि दी !
जवाब देंहटाएंसुन्दर सृजन , आभार .
जवाब देंहटाएंकृपया मेरे ब्लॉग पर भी पधारें , आभारी होऊंगा .
लकीरों में जीवन की भी कोई न कोई रखा होती है ... इससे मुक्ति संभव है क्या ...
जवाब देंहटाएंवाह..
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर अंजू जी.
अनु