छ्पने की चाहत में
'वो' लिखता ही गया
इतना लिखा कि
' हो गया किताब '।
संस्करण निकलते हैं
जिल्द ( कवर ) बदलती है
और कीमत रहती है
बढ़ती-घटती ....... .
भटकता रहा कभी
इस हाथ ,कभी
उस हाथ.……
चक्करघिन्नी सा
रहता है घूमता
उन्ही शब्दों (किरदारों )
के साथ.…।
आह…… !!!
नही होना मुझे
कोई ऐसी किताब
छोड़ दिया लिखना
सवाल - जवाब के
किसी तयशुदा
हिसाब के साथ. .......
बेहद गहन भाव .....
जवाब देंहटाएंबहुत गहन भाव ...लेखन तो स्वान्त सुखाय है |
जवाब देंहटाएंप्रसिद्ध लेखक अमोस ओज ने एक बार कहा था कि मैं जब छोटा था तो बड़ा होकर एक किताब बनना चाहता था, लेखक नहीं,लोगों को चींटियों की तरह मारा जा सकता है, लेखकों को भी पर बहुत सम्भावना है कि एक किताब किसी भी कोने में सुरक्षित बच जाए।
जवाब देंहटाएंवैसे किताब मुझे एक रहस्यमयी चीज़ लगती है, उसे अस्तित्व की तरह देखें तो, आप उसे अचानक बीच में से खोल सकते हैं, किताब के लिए जो भविष्य है उसे आप वर्तमान में देख रहे हैं,उसका मध्यांतर हमारा आरम्भ है, क्या उसे वहीं से समझा जा सकता है- शायद नहीं और तब क्या हम संसार के भी ऐसे ही अधीर पाठक नहीं हैं,बिना आदि के ज्ञान के क्या हम समझ पाते हैं कि क्या हो रहा है और ये कौन है जो आगे जा रहा है- क्या वाकई में हम या ये सृष्टि रुपी किताब - हम जो मात्र पाठक हैं, समय को देखते, समय से बाहर।
लाजवाब ,गहन प्रतक्रिया ....शैलेन्द्र सच कहा आपने " क्या हम संसार के भी ऐसे ही अधीर पाठक नहीं हैं,बिना आदि के ज्ञान के क्या हम समझ पाते हैं कि क्या हो रहा है और ये कौन है जो आगे जा रहा है- क्या वाकई में हम या ये सृष्टि रुपी किताब - हम जो मात्र पाठक हैं, समय को देखते, समय से बाहर।"
हटाएंआपकी उपस्थिति ..शब्दों को स्थापना -
बचे रहने की संभावनाओं के चलते - बचे रहने की चाहत....अह्ह्ह्ह !!!!
छपते रहने की प्रक्रिया ...
बेहतरीन भावों को समेटे सुंदर प्रस्तुति।।।
जवाब देंहटाएंरचे जाने के समानांतर भी .... जो निशब्द रचा जा रहा होता है.... उसे भी रच डाला आपने ! बहुत सुन्दर भी और बहुत सहज भी।
जवाब देंहटाएंमैं भी होना चाहती हूँ एक किताब
जवाब देंहटाएंमत खरीदो
कीमत मामूली ही सही
जिस दिन खुले
कुछ ख़ास कह जाये किसी ख़ास से
इतना लिखा कि ........ अच्छा है . जी
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