‘सागर मंथन’
देव, दानव
फिर
समुन्द्र की निध्यिों का
बँटवारा ............
सब कुछ
बराबर बराबर
पर
अमृत कलश को
देखते ही
उठा विवाद
‘अमृत’ की
चाहत में ---।
‘सेतु समुन्द्रम’
देव रूपी आस्था
बैठी है चुपचाप
सत्ता की लोलुपता
कर रही है
छीना-झपटी
अमृत कलश का
हो गया बटवारा
कलश बन गया
‘राम सेतु’
‘राम सेतु’
पर अमृत
‘राम’ नही
ब्लकि है
सत्ता की
महत्वाकांक्षा
विवाद
वही ‘अमृत’ का ----
जहाँ जहाँ अमृत गिरा
वहाँ वहाँ कुम्भ बना ----
जहाँ जहाँ
कलश छलकेगा
कलश छलकेगा
वहाँ वहाँ
कुर्सी का वर्चस्व बनेगा
कुर्सी का वर्चस्व बनेगा
ऐसा माना जा रहा है
राजनीति के अर्थों में ---
जब जब
कुम्भ आता है
धार्मिक संवेदना
खिंचती है,
नदियों की ओर
जब जब
चुनाव आता है
चुनाव आता है
अपने वर्चस्व हेतु
सत्ता उठाती है
‘राम’ का तूणीर
और
और
साध लेती है
कोई ना कोई
निशाना किन्तु,
तीर चलाने वाले हाथ
नहीं जानते
कि तूणीर
चाहे राम का रहा हो
पर
तीर ‘राम’ के नहीं
क्योंकि
सत्ता विमुख तुणीर भी
अब
हो गया है खाली
हो गया है खाली
और आस्था,
हो गई है
समझदार
समझदार
जान गई है भेद
लक्ष्य और निशाने ,
सत्ता सेतु और
सेतु समुन्द्रम के बीच
यह सागर मंथन तो बहुत यथार्थ वर्णन है ... अच्छी पोस्ट
जवाब देंहटाएंगहनता को समेटे यह सागर मंथन ।
जवाब देंहटाएंबेहतरीन।
जवाब देंहटाएंसादर
सुन्दर प्रस्तुति...आभार
जवाब देंहटाएंप्रतीकों के माध्यम से भ्रष्ट ब्यवस्था पर सटीक प्रहार ..अनुपम भाव युक्त शब्द संयोजन ... सार्थक एवं गहन अभिव्यक्ति ..
जवाब देंहटाएंसादर !!!
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति
जवाब देंहटाएंapki soch ki gahenta ko prakat karti hui ek bahut prabhavi rachna aur iska ant laajawab aur saty.
जवाब देंहटाएंसागर मंथन का उत्तम विवरण .......... बहुत बहुत सच ......... बेहतरीन पोस्ट !!
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