बीन कर
ख्यालों के कच्चे कोयले ...
जलने लगी थी कांगडी ...
धुखती बेसुध खुमारी में
स्वाहा होती सांसें
कुछ कहती सुनती
हवाओं की सरगोशी
बुनने लगी
अनगिनत पलों से ..
एक गर्माहट ...!!
ओढने लगी गर्माहट ....
अचानक तप्त गालों ने
सोख ली ढुलकती
दो बूँदें .......
अह्ह्ह्ह्ह ...!!!
इतना ताप ..!!
कैसे सहती है कांगड़ी ......?!
मन ..
कांगडी ही तो है
और बर्फ को पीना
बहुत मुश्किल ......!!!!!
(कभी कभी यूँ भी होता है ...............)
मन ..
जवाब देंहटाएंकांगडी ही तो है
और बर्फ को पीना
बहुत मुश्किल ......!!!!!
सच !
मन ..
जवाब देंहटाएंकांगडी ही तो है
और बर्फ को पीना
बहुत मुश्किल ......!!!!!....... पर पीते जाते हैं , बिना सिहरे
मन और कांगडी... बहुत ही अद्भुत तुलना की है आपने अंजू जी... सुन्दर भाव संयोजन!
जवाब देंहटाएंहाँ कभी कभी होता है ऐसा भी।
जवाब देंहटाएंमन कांगड़ी , बिम्ब अच्छा लगा !
जवाब देंहटाएंगहन दृष्टि !
जीवन में सब पलों को जीना पडता है ... बर्फ भी पीना पडता है ...
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी लगी आपकी रचना. सच में मन को किस किस से गुजरना होता है, क्या क्या पीना होता है.
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