लिबास तन का बदलना
होता है कितना आसां
काश ! होता इतना ही आसां
रूह का लिबास उतार फेंकना
कर देना दान ,किसी
ग्रहण की छाया में …….
या फिर उधेड़ कर सीवन
टुकड़ा टुकड़ा लिख देना
दरवाज़े ,खिड़कियों के नाम
पोंछने को धूल
या बांधने को घाव…।
या फिर काट-छांट कर
किया जा सकता पायदान…।
घूरती नजरें
बींधती है मन-आत्म
सिकुड़ने पर भी तो
घुटती है श्वास
क्या ,सांस लेना
जुर्म है…. ईश्वर ?!
या वर्जित हैं
उन्मुक्त प्राण .…!!!
गर हाँ.…तो
अपने ही हाथों
नोच कर
उतार फेंकने का
ह्क़ नही तो , हौंसला
ही दे दिया होता …….
छीजता लिबास
आत्म का परिहास
नही देखा जाता
अब मुझसे......
क्या यही नियति है ……
हाँ ,तो
कर दे राख
रह जाने दे
मात्र आभास ..........
क्या यही नियति है ……
हाँ ,तो
कर दे राख
रह जाने दे
मात्र आभास ..........
जुर्म, स्वास लेना नहीं,
जवाब देंहटाएंआत्मा का परिहास है ।
सुन्दर अभिव्यक्ति ।
मन का परिधान बदलना मुश्किल !
जवाब देंहटाएंबहुत खूब !
बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल शनिवार (26-10-2013) "ख़ुद अपना आकाश रचो तुम" चर्चामंच : चर्चा अंक -1410” पर होगी.
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है.
सादर...!
रूह तो सत्य है
जवाब देंहटाएंसत्य का लिबास कितना भी दर्द दे
पर उसकी बात जुदा है
bahut hi gahan bhav sanjoye hain dard ubhar kar aaya hai
जवाब देंहटाएंबस यही एक चीज़ ऊपर वाला अपने पास रकना चाहता है ... बस छोड़ता है एक एहसास जिसको जीना होता है ...
जवाब देंहटाएंलिबास बदलते रहते हैं, कैसे भी, कभी भी , मृत्यु के बाद भी ...!
जवाब देंहटाएंसुन्दर
चलते चलते मुझसे पुछा मेरे पांव के छालों ने ......
जवाब देंहटाएंबस्ती कितनी दूर बसा ली दिल में बसने वालों ने .....
****************सुन्दर प्रस्तुति |
“अजेय-असीम{Unlimited Potential}”
बहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंbahut sundar...
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर |
जवाब देंहटाएंबहुत गहन चिन्तन के लिए सार्थक रचना । शुभकामनाएँ ।
जवाब देंहटाएंकाश ! होता इतना ही आसां
जवाब देंहटाएंरूह का लिबास उतार फेंकना ... बहुत सुन्दर ...
बहुत खूबसूरत!!!
जवाब देंहटाएंअनु