ANANYA
रविवार, 11 नवंबर 2018
शुक्रवार, 10 अप्रैल 2015
शनिवार, 20 दिसंबर 2014
सोमवार, 25 अगस्त 2014
'दलित' बहुत ही आम सुनने में आने वाला शब्द , जिसके मायने नही पता किसी को , बस सिर्फ एक पर्याय हो गया है आज हर क्षेत्र में योग्यताओं को धकेल कर उनकी जगह हथियाने का।
किसी वक़्त का शोषित , बराबरी का दर्ज़ा मांग कर आज खुद शोषण करने पर उतारू है। फर्क क्या रहा। अगर वास्तव में उसने शोषण के दर्द को समझा होता और वो खुद को इतना सक्षम मानता की वो किसी से कम नही तो आज वो चंद कागज़ के पुर्ज़ों के बल पर खुद को कमतर न आँकता।
बराबर या समता के मायने क्या है जहां कोई भेद न हो सब एक से।
हाँ ये समता आयोजनो में खाने की टेबल पर मिल जाएगी जनरल कहि जाने वाली संख्या के घरों में एक साथ ठहाके ,मित्रता यहां तक की रिश्ते नाते ,खाना -पहरावा -स्कूलिंग -सब जगह बराबर एक थाली में ....
लेकिन नौकरी ,पदोन्नति ,या फिर शिक्षा के मामले में ये 'दलित ,ओबीसी जैसे ' परचम हाथ में लेकर अलग थलग खड़े हो जायेंगे, हमारा हक़ कहकर ……????? ये हक़ की मांग नही ये स्वार्थ है ऐसा स्वार्थ जिसके चलते वे दुर्योधन हो गए है और सरकार गांधारी और कानूनं तो धृतराष्ट्र है ही। ।जैस दिखाओ वैसा देखने लगेगा अपना मूल अस्तित्व भूल , जो जैसा इंटरप्रेट कर दे वही ,या जिसकी लाठी उसकी भैंस ....
हैरानी की बात है कि इतने आरक्षण के बाद भी , इतने वर्षों में आप दलित से उपर नही उठ पाये ,बल्कि और दलित हो गए। ये कैसा विकास कि हर साल सबसे आगे ज्यादा हासिल कर भी पिछड़ापन बरकरार।
ऐसा तो नही होता न।
सच तो ये है आप जनरल होना ही नही चाहते। येन केन प्रकारेण बस हासिल करना चाहते है.।
आज कहीं न कहीं मित्रता बराबरी की थोडीसी गुंजाइश बाकी है। लेकिन आने वाला वक़्त आपको इतना अलग कर देगा की आप उसी बीते वक़्त में जा खड़े होगे।
आप का ये स्वार्थ ,ये लोभ एक दिन आप को ही निशाना बनाएगा। यकीन जानिए वो दिन आएगा। . क्यूंकि क्षमता के बल पर कुछ पाना सही है पर
एक भिखारी के करोड़पति होने की खबर थी। ।भिख मांगता था। इससे ज्यादा पिछड़ापन क्या होगा की वो फूटपाथ पर सोता था। करोड़ का मालिक होकर भी वो भिखमंगा था। क़्युङ्कि उसने अपनी पहचान यही मुक़र्रर कर ली थी और वो नही छोड़ना चाहता अपना लेबल। । जब बिना पढ़े मेहनत किये ।कुछ मिल रहगा हो तो कौन चाहेगा उपर उठना।
आप का ये स्वार्थ ,ये लोभ एक दिन आप को ही निशाना बनाएगा। यकीन जानिए वो दिन आएगा। . क्यूंकि क्षमता के बल पर कुछ पाना सही है पर
एक भिखारी के करोड़पति होने की खबर थी। ।भिख मांगता था। इससे ज्यादा पिछड़ापन क्या होगा की वो फूटपाथ पर सोता था। करोड़ का मालिक होकर भी वो भिखमंगा था। क़्युङ्कि उसने अपनी पहचान यही मुक़र्रर कर ली थी और वो नही छोड़ना चाहता अपना लेबल। । जब बिना पढ़े मेहनत किये ।कुछ मिल रहगा हो तो कौन चाहेगा उपर उठना।
शनिवार, 23 अगस्त 2014
शमी के फूल......
शमी के फूल
एक भाव
एक आंसू
अर्पित किया जो
शिव को.………
मन की टहनी पर
ढांपते भूरापन,
लद जातेहैं
लद जातेहैं
पीलेपन में।
खुश होते हैं
समर्पित से.……
शिव दृष्टि को पाकर।
अचानक कोई स्पर्श
हिला देता है डाली
बिखर जाते हैं
धरा पर.……
पोर चाहते है सहेजना
पर ,नही
होता है बहुत नाज़ुक
उनका होना (वजूद )
वो शमी के फूल हो
या कि आंसू ……
जब टूटते हैं , तो
कहाँ सिमटते है
सिवाय धरा की गोद के।
तभी होता है
सर्वोपरि , और प्रिय
शमी का फूल..
एक फूल एक क्षण
एक टहनी एक मन
चाहते हैं शिव ,
पूर्ण समर्पण …
एक फूल का चुनना
एकाकार हो जाना है
जो नही होता आसानी से
पर मुश्किल भी तो नही
चाहने पर। …।
शुक्रवार, 15 अगस्त 2014
आविर्भाव ...........
तीसरा नेत्र
नही होता कुछ और
होता है ' तीसरा व्यक्ति '
जो रहता है हमेशा
जो शिव को
बाघंबर से परे
ले जाता है शिवत्व में
हो जाते हैं एकाकार
शिव
और अनंत प्रकाश.......
और अनंत प्रकाश.......
'तम ' नही झेल पाता
प्रकाश
हो जाता है विलीन ( भस्म )
उस प्रकाश के पीछे
कण कण से
प्रस्फुटित होते हैं
नए बीज , नई सुगंध
नई रचना ----
नई सृष्टि का आविर्भाव
यही तो है…
गूंजता नाद
ह्ह्ह!
शिवोह्म ! शिवोह्म…!
रविवार, 10 अगस्त 2014
बुधवार, 2 जुलाई 2014
बदलते कवर .....
छ्पने की चाहत में
'वो' लिखता ही गया
इतना लिखा कि
' हो गया किताब '।
संस्करण निकलते हैं
जिल्द ( कवर ) बदलती है
और कीमत रहती है
बढ़ती-घटती ....... .
भटकता रहा कभी
इस हाथ ,कभी
उस हाथ.……
चक्करघिन्नी सा
रहता है घूमता
उन्ही शब्दों (किरदारों )
के साथ.…।
आह…… !!!
नही होना मुझे
कोई ऐसी किताब
छोड़ दिया लिखना
सवाल - जवाब के
किसी तयशुदा
हिसाब के साथ. .......
गुरुवार, 13 फ़रवरी 2014
वो इक आवाज़ ..........
सुना था
झरना जब शिखर से
उतरता है जमीं पर ...
बज उठता है
जल में छिपा संगीत
जलतरंग सा ......
कितनी ही
स्वर लहरियां
सुरों की बंदिश
ताल की थाप पर
थिरकते बोल
घोल देते हैं
माधुर्य रस
उन निर्जन सन्नाटों में .........
............* ...*.............
हाँ ,
वो एक 'आवाज़ '
झरने सी
हृदय पाट को
चीरती
झील सी ,
थम गई है
ख़ामोशी में ...
बह रहा है
संगीत
सहज नदी सा
तन मन में ...........
आह !
नैसर्गिकता का सानी
कब कोई हुआ है ......!!!!!
गुरुवार, 6 फ़रवरी 2014
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