खुदको
साबित करने की चाह
अंतत :
साबित होकर भी
दब जाती है
मुठी भर
मिट्टी के नीचे .....
फरोला जाता है
जिसे
बार -त्यौहार
या फिर
कभी लभी
तलाशते हैं
मिट्टी से
जुड़े लोग ही
मिट्टी में
रूह का अस्तित्व ......
गाहे बगाहे जो
दे जाता है
एहसास
उनके होने का
पर विचारणीय है ...??!!
मुठ्ठी भर मिट्टी
रहती है कब तक .?
मौसमों में
बिखरती
घुलती
बहती ...
अंतत : हो जाती
ज़र्रा...
छोड़ देती हैं
ज़मीन
बन जाती है
आसमां
रह जाता है
दृष्टिभ्रम ...........!
(" काव्य-लहरी " में प्रकाशित )
सटीक आकलन
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार (09-06-2013) के चर्चा मंच पर लिंक की गई है कृपया पधारें. सूचनार्थ
जवाब देंहटाएंशुक्रिया अनन्त जी ....
हटाएंसुन्दर सटीक मौसमों में
जवाब देंहटाएंबहती ...
अंतत : हो जाती
ज़र्रा...
छोड़ देती हैं
ज़मीन
बन जाती है
आसमां
रह जाता है
सुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर रचना अंजू। बधाई !
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंअच्छी प्रस्तुति !
जवाब देंहटाएंअनुशरण कर मेरे ब्लॉग को अनुभव करे मेरी अनुभूति को
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सुंदर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंगहरा अनुभव इस सुंदर कविता में.
जवाब देंहटाएंसटीक प्रस्तुति
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