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शुक्रवार, 7 जून 2013

दृष्टिभ्रम.................


खुदको
साबित करने की चाह
अंतत :
साबित होकर भी
दब जाती है
मुठी  भर
मिट्टी के नीचे .....

फरोला  जाता है
जिसे
बार -त्यौहार
या फिर
कभी लभी
तलाशते हैं
मिट्टी से
जुड़े लोग ही
मिट्टी में
रूह का अस्तित्व  ......

गाहे बगाहे जो
दे जाता है
एहसास  
उनके होने का

पर विचारणीय है ...??!!

मुठ्ठी भर मिट्टी
रहती है कब तक .?

मौसमों में
बिखरती
घुलती
बहती ...
अंतत : हो जाती
ज़र्रा...

छोड़ देती हैं
ज़मीन
बन जाती है
 आसमां

रह जाता है
दृष्टिभ्रम ...........!
(" काव्य-लहरी " में प्रकाशित )



                                                                                                                                                                                                       

11 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार (09-06-2013) के चर्चा मंच पर लिंक की गई है कृपया पधारें. सूचनार्थ

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  2. सुन्दर सटीक मौसमों में
    बहती ...
    अंतत : हो जाती
    ज़र्रा...
    छोड़ देती हैं
    ज़मीन
    बन जाती है
    आसमां
    रह जाता है

    जवाब देंहटाएं
  3. बहुत सुंदर रचना अंजू। बधाई !

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  4. अच्छी प्रस्तुति !

    अनुशरण कर मेरे ब्लॉग को अनुभव करे मेरी अनुभूति को
    latest post: प्रेम- पहेली
    LATEST POST जन्म ,मृत्यु और मोक्ष !

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  5. गहरा अनुभव इस सुंदर कविता में.

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