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मंगलवार, 17 मई 2011

अधिकार ..............

अधिकार खरपतवार हो गए
कर्त्तव्य दरकिनार हो गए .....
अत्याचार बढ़े इतने
कानून खुद शिकार हो गए .....
अर्थ जाल का बोलबाला
शब्दकोष निस्सार हो गए .....
बेलें बन गई पेड़ यहाँ पर
पेड़ गुनाहगार हो गए .....
कौन सुनेगा, किस से कहोगे
गूंगे बहरे राजदार हो गए .....
देख, सुन, और ओढ़ ले चुप्पी
साये तक दीवार हो गए .....
सोच हुई गुलाम जिस्म की
जिस्म अब अखबार हो गए .....
अच्छे लोग बहुत यहाँ है
बुरे अब दुशवार हो गए .....
सोच के दायरे फैले इतने
रिश्ते तक व्यापार हो गए .....


(" दैनिक ट्रिब्यून चंडीगढ़ में प्रकाशित )

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