व
जू
द
हम थे, हम हैं, हम होंगे
या पिफर लेंगे जन्म
ऐसा मानते है हम
शास्त्राों से सुनकर ण्
तो राम थे,
राम हैं, और पिफर
वो भी होंगे
इसी लोक में
ऐसा क्यूँ नहीं मानते
क्यूँ उछालते हैं किसी बात को,
क्यूँ जोड़ते है भावनाओं से,
क्यूँ तलाशते हैं सबूत
उन सबके वजूद का
---
जबकि हम, आज तक
नहीं तलाश पाए,
अपना ही वजूद
इस ब्रमाण्ड में
भोली आस्था की नींव पर
क्यूँ बनाते हैं दीवारें
कभी जन्मभूमि तो
कभी राम सेतु के नाम पर,
जबकि अपने ही घर में
अपने ही पालने वालों की
हर निशानी को, बहा देते हैं
गंगा में
या पफेंक देते हैं, बेकार समझकर
तसल्ली के लिए,
कहते हैं खुद से, कि ‘वो’
हमेशा हमारे साथ है
क्योंकि
हम ‘‘उन्हीं’’ का अंश है
तो पिफर ‘वो’
जो सबका है
सब ‘जिसके’ अंश हैण्ण्
क्यूँ रख दिया है उसे
अलग थलग
एक अंध्ेरे कोने में,ण्और
उसकी महत्ता के लिए
पूजते हैं उसकी निर्जीव
निशानियों को,
जबकि बहा देते हैं लहू
उसी के सजीव अंशों का
किसी ना किसी
धर्मिक संवेदना की
आड़ में,
अपने निहित स्वार्थों की
पूर्ति हेतु ।
सर्वाधिकार सुरक्षित
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें