Powered By Blogger

गुरुवार, 4 अक्तूबर 2012

मरीचिका ........



वह दृष्टि 
अब भी

मुझमे है......!
उसमे डूबी
लड़ रही हूं
मैं ,स्वयं  से !
क्या ..
भ्रम है वो मेरा 
या फिर 
है मरूभूमि में 
जल  का आभास ....!!
छोड़ दूँ खोज 
किसी डर से 
या दौड लूँ ,उस 
परछाई के पीछे .....!
जिज्ञासावश  देखा 
फिर से उन आँखों में 
जाने क्या सूझा ,
दौड पड़ी 
उस जल जैसे आभास को 
अंजुरी में भरने ...!!!
जानती थी 
 नहीं , ये कुछ ओर 
है केवल 
मन की मरीचिका ..!!
शायद ...
जीवन भी तो 
है मात्र...
एक जीजिविषा ..............(अनन्या अंजू )

6 टिप्‍पणियां:

  1. दूर होता जाता है आभास,मिलने की इच्छा मरती नहीं....मरीचिका ही जिजीविषा बन जाती है

    जवाब देंहटाएं
  2. मृगमरीचिका में भटकते मन को चैन कहाँ.... आराम कहा??? बहुत सुन्दर रचना अंजू जी!

    जवाब देंहटाएं
  3. भटकाव में जिंदगी नहीं है

    कहीं तो विराम देना होगा ......

    जवाब देंहटाएं