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गुरुवार, 18 जुलाई 2013

अपेक्षा के दायरे ....


नही
जुड़ने दूंगी
उस हद तक
इस आईने को .....

हो सके
प्रतिबिम्बित
छाया मेरी
अपेक्षा की ...

इसलिए
रखती हूं
हथेलियों के बीच
एक पत्थर
एक कील नुकीली ...

भींच लेती हूं
मुट्ठी
जोर से
जब भी
सिर
उठाती हैं
वो ........

कटी लकीरें
छिले हाथ
कब देते हैं
गवाही
ऐसे जख्मों की ........

[{( अंजू अनन्या )}]

7 टिप्‍पणियां:

  1. बिम्ब ग्रहण नहीं कर पा रहा हूँ ।
    comment box में ही थोड़ा स्पष्ट कर दें ।

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  2. आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा शनिवार(20-7-2013) के चर्चा मंच पर भी है ।
    सूचनार्थ!

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  3. आपकी यह रचना अद्भुत विचार और भाव लिए हुए अति सुन्दर अभिव्यक्ति है । बधाई । सस्नेह

    जवाब देंहटाएं