अपेक्षा के दायरे ....
नही
जुड़ने दूंगी
उस हद तक
इस आईने को .....
हो सके
प्रतिबिम्बित
छाया मेरी
अपेक्षा की ...
इसलिए
रखती हूं
हथेलियों के बीच
एक पत्थर
एक कील नुकीली ...
भींच लेती हूं
मुट्ठी
जोर से
जब भी
सिर
उठाती हैं
वो ........
कटी लकीरें
छिले हाथ
कब देते हैं
गवाही
ऐसे जख्मों की ........
[{( अंजू अनन्या )}]
बहुत खूब ...
जवाब देंहटाएंबिम्ब ग्रहण नहीं कर पा रहा हूँ ।
जवाब देंहटाएंcomment box में ही थोड़ा स्पष्ट कर दें ।
बेहद खूबसूरत ।
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टी की चर्चा शनिवार(20-7-2013) के चर्चा मंच पर भी है ।
जवाब देंहटाएंसूचनार्थ!
आपकी यह रचना अद्भुत विचार और भाव लिए हुए अति सुन्दर अभिव्यक्ति है । बधाई । सस्नेह
जवाब देंहटाएंbhaut khub...behtreen...
जवाब देंहटाएंमन ही साक्ष्य होता है
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