बुझने से पहले
अकसर
हो जाती है तेज़ ,
हो जाती है तेज़ ,
दीये की टिमटिमाती लौ......
शायद
कुछ ऐसी ही होती है
पुराने और नए वर्ष की
संधि् बेला ................
जहाँ, बीता वर्ष
करता है आकलन
तीन सौ चौसंठ दिनों का
और, जोड घटाव के बाद
कर लेना चाहता है दर्ज
अंतिम दिन........
बन जाए जो ‘अर्थ’
पूरे वर्ष का ।
या फिर
करता है कोशिश
संवारने की ,
पुराने लिबास को ....
और फिर ,
सपनीले धागों
आशाओं के रंग से
बुनता है
एक ‘नया लिबास’
एक ‘नया लिबास’
जो बेहतर हो
पुराने लिबास से .....
पर ,क्या
ऐसा होता है...?
ऐसा होता है...?
ये सवाल
हर साल
इसी संधि् बेला पर
बन जाता है
‘प्रश्न चिन्ह’
और मैं
खोजने लगती हूँ
उसका हल........
बेहतरीन .... अभी तो आधा साल ही बीटा है ...
जवाब देंहटाएंजी ...बेवक्त है ....पर पहले की लिखी हुई थी ...बस यहाँ दर्ज की है ...संगीता दी !
हटाएंहाँ अक्सर हम सोचते हैं की क्या और कहाँ तक सही था.........बढ़िया।
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